शिक्षा के अधिकार , सामाजिक भेदभाव पर बनी फिल्म ‘गुठली’ में दिखेंगे झांसी के आरिफ शहडोली,जालौन के कास्टिंग डायरेक्ट प्रवीण चन्द्रा ।
सामाजिक भेदभाव के बीच शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे एक दलित बच्चे के संघर्ष को दर्शाती फ़िल्म ‘गुठली लड्डू’ देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। फिल्म में एक वर्ग की समस्यओं को दर्शाया गया कि किस प्रकार से उन्हें मुलभूत सुविधाओं और संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है।
फ़िल्म में झांसी के आरिफ शहडोली ने मुख्य खलनायक की भूमिका निभाई है। इस फ़िल्म के कलाकार फ़िल्म में हिंदी के साथ ही बुंदेली भाषा भी बोलते नजर आ रहे हैं। क्राइम वीक न्यूज़ एडिटर से कास्टिंग डायरेक्ट प्रवीण चन्द्रा लखनऊ में मूवी के बारे में किए खास बातचीत फिल्म के निर्देशक इशरत आर खान ने कोंच के रहने वाले कास्टिंग डायरेक्ट प्रवीण चन्द्रा जालौन के रहने वाले हैं । फ़िल्म के लिए किसी क्षेत्रीय भाषा को लेकर सलाह मांगी। प्रवीण बुन्देलखण्ड के हैं इसलिए उन्होंने बुंदेली भाषा रखने की सलाह दी। निर्देशक ने पूछा कि कलाकारों को बुंदेली सिखाएगा कौन। इस पर प्रवीण चन्द्रा ने निर्देशक से एक ट्रेनर बुलाने का वादा किया।फ़िल्म निर्देशक ने कलाकारों को बुंदेली सिखाने के लिए आरिफ शहडोली को बुलाया। आरिफ यह मानकर गए थे कि एक सप्ताह में कलाकारों को बुंदेली सिखाकर आ जाएंगे। वहां कलाकारों को बुंदेली सिखाई। कल्याणी मूले लगातार सीखती रहीं। सुब्रत दत्ता बंगाल से हैं, उन्होंने भी बहुत मेहनत की ।फ़िल्म में गुठली का रोल करने वाले मुख्य किरदार गुजरात के धनय ने भी काफी मेहनत की। इस तरह सभी कलाकारों को लगातार बुंदेली सिखाते रहे। सभी कलाकार पूरी तल्लीनता के साथ सीखते रहे। कोलकाता इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में रीजनल भाषा खण्ड में इस फ़िल्म को बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड मिला है। फ़िल्म में कलाकार बुंदेली बहुत अच्छी तरह बोल रहे हैं। संजय मिश्रा के साथ काम करने के अनुभव पर आरिफ बताते हैं कि वे गुरु तुल्य हैं। जहां भटकते थे, वे डांट भी लगाते थे। यह यथार्थवादी फ़िल्म है। वे सिखाते थे, बताते थे। दिल के बहुत साफ इंसान हैं वे। उनकी सृजन प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। वे सिनेमा को जीते हैं और दूसरों को भी जीना सिखाते हैं।फ़िल्म में संजय मिश्रा के नए लुक के बारे में आरिफ कहते हैं कि फ़िल्म इंडस्ट्री में कोई कलाकार जिस रूप में चला जाता है, उसी रूप में चलता रहता है। डायरेक्टर इशरत आर खान ने देखा कि इस रोल को वे बेहतर कर सकते हैं। उन्होंने एकदम नई तरह की भूमिका निभाई है।फ़िल्म में कोंच के रहने वाले प्रवीण चन्द्रा अभिनय करते दिखाई दे रहे हैं। इस फ़िल्म की ज्यादातर शूटिंग त्रयम्बकेश्वर में हुई है। मराठी के अच्छे कलाकारों ने इसमें अभिनय किया है। भाषा सीखने की ललक वहां के लोगों में काफी है। इस फ़िल्म से बुंदेली को एक पहचान मिली है। लखनऊ के वेव मॉल सिनेमा हॉल में प्रवीण चन्द्रा के साथ हजारों की संख्या में मूवी देखा गया। और उनसे कुछ खास बातचीत भी हुई। शिक्षा पर सबका समान अधिकार हैं। कोई बच्चा पढ़ना चाहे तो सरकार की जिम्मेदारी है उसे स्कूल मुहैया कराना। फिल्म ‘गुठली लड्डू’ विकास के उन तमाम दावों पर एक करारा तमाचा है जिसमें बार बार ये कहा जाता है कि देश में सब चंगा है। किसी भी राज्य की राजधानी से कोई 100 किमी बियाबान या नदी के किनारों की तरफ निकल जाइए जो दिखेगा, उसे समझ पाना अब भी तमाम समाजशास्त्रियों के लिए मुश्किल है। निर्देशक इशरत आर खान ने फिल्म ‘गुठली लड्डू’ में एक ऐसी कहानी के तार छेड़े हैं ।जिससे आंखें मिला पाना ही मुश्किल है। ये फिल्म उन तमाम शिक्षाविदों, सरकारी नीतियां बनाने वालों और ग्रामीण बच्चों के लिए काम करने के नाम पर एनजीओ चलाने वालों को जरूर ही देखनी चाहिए।फिल्म ‘गुठली लड्डू’ एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसे लोग अपने पास भी नहीं बिठाना चाहते।
कहानी
ये कहानी है गुठली और लड्डू नाम के दो बच्चों की जो छोटी जाति के हैं. उनका परिवार साफ सफाई का काम करता है लेकिन गुठली पढ़ना चाहता है. वो स्कूल की खिड़की से वो सब समझ लेता है जो क्लास में बैठे बच्चे नहीं समझ पाते लेकिन क्योंकि वो छोटी जाति से है उसे स्कूल में एडमिशन नहीं मिलता. स्कूल के प्रिंसिपल संजय मिश्रा पहले उसे नापसंद करते हैं लेकिन फिर चाहते हैं कि उसे एडमिशन मिल जाए. गुठली के पिता भी कोशिश करते हैं को बेटा पढ़ ले लेकिन क्या गुठली को एडमिशन मिल पाता है. क्या एक छोटी जाति का बच्चा बड़ी जाति के बच्चों के साथ स्कूल में पढ़ पाता है. यही इस फिल्म की कहानी है और ये कहानी कहीं ना कहीं आपको परेशान करती है और सोचने पर मजबूर भी करती है. एक छोटी जात वाला एक बड़ी जात वाले के घर की साइकिल छू लेता है. उसे खूब खरी-खोटी सुनने को मिलती है. फिर साफ सफाई के बदले उसे बड़ी जात वाली महिला 50 रुपए देती है और 20 रुपए जबरदस्ती वापस मांगती है. छोटी जात वाला कहता है कि मेरे छुए पैसे आप कैसे रख लोगे तो बड़ी जात वाली महिला कहती है लक्ष्मी है ये लक्ष्मी. लक्ष्मी के कमल में कीचड़ भी लगता है तब भी वो कमल ही होता है. ये फिल्म सही सवाल उठाती है कि जात-पात कब तक हमारे समाज में रहेगा और अगर छोटी जात वाला अफसर बन गया तो बड़ी जात वाले को उससे हाथ मिलाने में दिक्कत नहीं लेकिन अगर वो सफाई करने वाला है तो उसके छूने से भी काफी तकलीफ हो जाती है. आज के दौर में बनी ये फिल्म सवाल उठाती है कि ऐसी फिल्में कब तक बनती रहेंगी और अगर ऐसा हो रहा है तो कब तक होता रहेगा. लोगो को ये भी समझना पड़े गा जो समाज की गंदगी साफ करता है, उसका सम्मान करना बहुत बड़े दिल की बात होती है। आमतौर पर ऐसे कर्मचारियों और उनके परिजनों के साथ समाज में तिरस्कृत की तरह ही लोग पेश आते हैं और क्या हो जब ऐसे ही किसी परिवार का बच्चा पढ़ लिखकर अपना सामाजिक स्तर सुधारने का सपना देख ले? सवाल जितना आसान है, उसका जवाब कागजों पर उकेरने बैठेंगे तो 21वीं सदी में आ पहुंचे देश भारत में भी तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहे लोगों का ये चेहरा डराता है।
शिक्षा पर सबका समान अधिकार हैं। कोई बच्चा पढ़ना चाहे तो सरकार की जिम्मेदारी है उसे स्कूल मुहैया कराना। फिल्म ‘गुठली लड्डू’ विकास के उन तमाम दावों पर एक करारा तमाचा है जिसमें बार बार ये कहा जाता है कि देश में सब चंगा है। किसी भी राज्य की राजधानी से कोई 100 किमी बियाबान या नदी के किनारों की तरफ निकल जाइए जो दिखेगा, उसे समझ पाना अब भी तमाम समाजशास्त्रियों के लिए मुश्किल है। निर्देशक इशरत आर खान ने फिल्म ‘गुठली लड्डू’ में एक ऐसी कहानी के तार छेड़े हैं जिससे आंखें मिला पाना ही मुश्किल है। ये फिल्म उन तमाम शिक्षाविदों, सरकारी नीतियां बनाने वालों और ग्रामीण बच्चों के लिए काम करने के नाम पर एनजीओ चलाने वालों को जरूर ही देखनी चाहिए।फिल्म ‘गुठली लड्डू’ एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसे लोग अपने पास भी नहीं बिठाना चाहते। जो समाज की गंदगी साफ करता है, उसका सम्मान करना बहुत बड़े दिल की बात होती है। आमतौर पर ऐसे कर्मचारियों और उनके परिजनों के साथ समाज में तिरस्कृत की तरह ही लोग पेश आते हैं और क्या हो जब ऐसे ही किसी परिवार का बच्चा पढ़ लिखकर अपना सामाजिक स्तर सुधारने का सपना देख ले? सवाल जितना आसान है, उसका जवाब कागजों पर उकेरने बैठेंगे तो 21वीं सदी में आ पहुंचे देश भारत में भी तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहे लोगों का ये चेहरा डराता है। गुठली लड्डू – गुठली फिर भी हार नहीं मानता। वह जाकर स्कूल के पास खड़ा हो जाता है। वह कलयुग का एकलव्य है। सुन सुनकर सीखता है और मौका मिले तो निशाना भी बिल्कुल सटीक लगा सकने की कूवत रखता है। लेकिन उसकी साधना में कुछ कुछ वैसा ही विघ्न आता है जैसे द्रोणाचार्य के कुत्ते ने एकलव्य की साधना में डाला था। लेकिन, उसके पहले वह अपनी साधना का साध्य लड्डू को बनाता है। गुठली के लिए लड्डू एक ऐसी काल्पनिक दुनिया है जिसमें वह दीवार पर ब्लैकबोर्ड बना सकता है, कक्षा में सुने पाठ दोहरा सकता है, और लड्डू के साथ इन सीखों का अभ्यास भीकर सकता है। साधना भंग होती है। घर तक शिकायत भी पहुंचती है लेकिन गुठली उगने की जिद पर अड़ा हुआ है। ‘आई एम कलाम’ अगर आपने देखी हो तो उसका अक्स आपको यहां गुठली के पिता में दिख सकता है। गुठली के पिता भी चाहते हैं कि गुठली पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बने।इस कहानी के द्रोणाचार्य स्कूल के प्रिंसिपल हरिशंकर हैं। लेकिन, इस बार वह अर्जुन के साथ न होकर एकलव्य के साथ हैं। संजय मिश्रा यह भूमिका निभा रहे हैं तो समझा जा सकता है कि उनके किरदार को ये कैसा अनगढ़ा रस अपने अभिनय में मिल गया है। संजय मिश्रा को देखकर ऐसा लगता है कि इनके अंदर अभी कितना अभिनय रस बाकी है। बस ऐसे निर्देशक चाहिए जो इस रस के नए नए छत्ते बना सकें और जरूरत पड़े तो उससे बिल्कुल ऑर्गेनिक शहद भी निकाल सकें। संजय मिश्रा का अभिनय ही फिल्म ‘गुठली लड्डू’ की जान है। 50 से ज्यादा फिल्म समारोहों में सम्मानित हो चुकी इस फिल्म को अयोध्या, लखनऊ, उदयपुर, गोरखपुर, कोलकाता और झारखंड से लेकर लंदन तक के लोग देख चुके हैं। इन शहरों के फिल्म समारोहों मे इसे सम्मान भी खूब मिला है। फिल्म ‘गुठली लड्डू’ में गुठली का किरदार निभाने वाले बच्चे धनंजय सेठ ने अपनी अदाकारी से सबका दिल जीत जीत लिया है। खालिस बाल कलाकारों का हिंदी सिनेमा में इन दिनों खासा अकाल है। निर्देशक कहानी भी तलाश रहे हैं और इन कहानियों के लिए उम्दा कलाकार भी। धनंजय की ट्रेनिंग फिल्म शुरू होने से पहले अच्छे से की गई है और इसका असर भी परदे पर दिखता है। गुठली के पिता मंगरू की भूमिका में सुब्रत दत्ता, बुधिया की भूमिका में कंचन पगारे, गुठली के दोस्त लड्डू की भूमिका में हीत शर्मा, गुठली की मां की भूमिका में कल्याणी मुले और लड्डू की मां की भूमिका में अर्चना पटेल का सहज अभिनय प्रभावित करता है।ये तो थी फिल्म की ढेर सारी अच्छी बातें। और, अब कुछ बातें वे जिनके बारे में ये फिल्म बनाने वालों को अपनी अगली फिल्म में गौर भी करना चाहिए और बजट मिले तो इसे बेहतर भी करना चाहिए। गणेश पंडित, श्रीनिवास अब्रोल और इशरत के मिले जुले प्रयास से बनी फिल्म की पटकथा के संवाद बुंदेली बोली में हैं और बहुत अच्छे बन पड़े हैं।
